छठ पूजाः लोक आस्था का महापर्व आज से शुरू

Wednesday 18 Nov 2020 कला-संस्कृति

 
वैदिक काल से चला आ रहा भगवान सूर्य की आराधना-उपासना का लोकपर्व सूर्यषष्ठी यानी छठ बुधवार से आरंभ हो गया। 36 घंटे की कठिन साधना का यह पर्व 21 नवंबर की सूर्योदय तक चलेगा। इसबार यह पर्व कोविड नियमावली के तहत मनाया जाएगा, जिसमें छठव्रती महिलाओं यानी परवैतिनों को छठ घाटों पर नहाने की अनुमति नहीं है। घाट पर जाने वालों को मास्क जरूर लगाना होगा। वृद्धों-बच्चों के छठ घाटों पर जाने की सख्त मनाही है। इस पर्व की शुरुआत कब हुई पहली पूजा किसने की- यह सवाल आम है। कुछ विद्वान जहां छठ माता को भगवान सूर्य की गायत्री और सावित्री शक्ति मानते हैं। इसे गायत्री उपासना का पर्व करार देते हैं, कुछ विद्वान इसे षोडश लोकमातृकाओं में एक देवसेना के रूप में अभिहित करते हैं। गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया। देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल समेत देश के विभिन्न शहरों में नदियों और तालाबों के किनारे अस्त होते सूर्य और उगते सूर्य को जल देकर सामाप्त होने वाला यह पर्व बुधवार से नहाय-खाय से शुरू हुआ। जिसमें लौकी दाल और चावल बनता है। उसके अगले दिन खरना होता है जिसमें खीर और पूरी बनती है। छठ करने वाली महिलाएं और पुरुष खरना की खीर खाकर व्रत की शुरुआत करते हैं। दो दिन बाद सुबह का अर्घ्य देने के पश्चात ही अन्न और जल ग्रहण करते हैं। सूर्य को अर्घ्य 20 नवम्बर की शाम और 21 की सुबह दिया जायेगा। महापर्व छठ को लेकर घर से घाट तक तैयारियां जोरों पर है। व्रती घर की साफ-सफाई के साथ व्रत के लिए पूजन सामग्री खरीदने में जुट गए हैं। कोई व्रती अपने घर में नहाय-खाय के लिए चावल चुनने में लगी हैं तो कोई छत पर गेहूं सुखाने में लगी हैं। छठ व्रतियों के लिए तालाबों और नदियों के घाटों को साफ-सुथरा और सजाने के काम में विभिन्न इलाकों की छठ पूजा समिति और स्वयं सेवक भी लगे हुए हैं। मुंबई, दिल्ली, गुजरात व कोलकाता आदि महानगरों से बड़ी संख्या में परदेसी घर को लौट रहे हैं। इससे ट्रेनों और बसों में भीड़ बढ़ गई है। छठ व्रत का मुख्य प्रसाद ठेकुआ है। यह गेहूं का आटा, गुड़ और देशी घी से बनाया जाता है। प्रसाद को मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी जलाकर पकाया जाता है। ऋतु फल में नारियल, केला, पपीता, सेब, अनार, कंद, सुथनी, गागल, ईख, सिघाड़ा, शरीफा, कंदा, संतरा, अनन्नास, नींबू, पत्तेदार हल्दी, पत्तेदार अदरक, कोहड़ा, मूली, पान, सुपारी, मेवा आदि का साम‌र्थ्य के अनुसार गाय के दूध के साथ अ‌र्घ्य दिया जाता है। यह दान बांस के दऊरा, कलसुप नहीं मिलने पर पीतल के कठवत या किसी पात्र में दिया जा सकता है। नहाय-खाय के दूसरे दिन सभी व्रती पूरे दिन निर्जला व्रत रखते हैं। सुबह से व्रत के साथ इसी दिन गेहूं आदि को धोकर सुखाया जाता है। दिनभर व्रत के बाद शाम को पूजा करने के बाद व्रती खरना करते हैं। इस दिन गुड़ की बनी हुई चावल की खीर और घी में तैयार रोटी व्रती ग्रहण करेंगे। कई जगहों पर खरना प्रसाद के रूप में अरवा चावल, दाल, सब्जी आदि भगवान भाष्कर को भोग लगाया जाता है। इसके अलावा केला, पानी सिघाड़ा आदि भी प्रसाद के रूप में भगवान आदित्य को भोग लगाया जाता है। खरना का प्रसाद सबसे पहले व्रती खुद बंद कमरे में ग्रहण करते हैं। खरना का प्रसाद मिट्टी के नये चूल्हे पर आम की लकड़ी से बनाया जाता है। इस व्रत की खासियत यह है कि इस पर्व को करने के लिए किसी पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती है और न ही मंत्रोचारण की जरूरत है। राजनीतिक दल भी इस त्योहार का राजनीतिक लाभ लेने की भरपूर कोशिश करते हैं। इसबार तो बिहार चुनाव में भी छठ व्रत को बिना किसी विघ्न के कराने के दावे किए गए थे। यह व्रत देश में सुख-समृद्धि लाए। देश के प्राणीमात्र का कल्याण हो, इतनी कामना हर देशवासी को है। कब हुई शुरुआत ब्रह्मवैवर्तपुराण में बताया गया है कि षष्ठी देवी की कृपा से स्वायंभुव मनु के पुत्र प्रियव्रत का मृत शिशु जीवित हो गया था। तभी से प्रकृति का छठा अंश मानी जाने वाली षष्ठी देवी बालकों की रक्षिका और संतान देने वाली देवी के रूप में पूजी जाने लगी। छठ के साथ स्कन्द पूजा की भी परम्परा जुड़ी हुई है। भगवान शिव के तेज से उत्पन्न बालक स्कन्द की छह कृतिकाओं ने स्तनपान कराकर रक्षा की थी। इसी कारण स्कन्द के छह मुख हैं और उन्हें कार्तिकेय नाम से पुकारा जाने लगा। कार्तिक से सम्बन्ध होने के कारण षष्ठी देवी को स्कन्द की पत्नी देवसेना नाम से भी पूजा जाता है। इस देवसेना को सूर्य की बहन के रूप में निरूपित किया जाता है। कहने को तो यह बिहार के लोगों का प्रमुख लोकपर्व है लेकिन सच तो यह है कि अब इस पर्व की व्याप्ति देश के हर उस शहर में हो गई है जहां बिहार के लोग रहते हैं। बिहार,झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों का यह प्रमुख लोकपर्व दिल्ली और महाराष्ट्र में भी, मध्यप्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी अपना ठीक-ठाक प्रभाव दिखाने लगा है। इस पर्व के दौरान वैदिक आर्य संस्कृति की झलक को सहजता से देखा-समझा जा सकता है। ऋग्वेद में सूर्य पूजन, उषा पूजन का वर्णन मिलता है। यह पर्व मूलत: प्रकृति पर्व है। प्रकृति को मान-सम्मान का पर्व है। शुचिता और पवित्रता का पर्व है। त्याग, तितीक्षा और तपस्या का पर्व है। अब तो विदेशों में रह रहे प्रवासी भारतीय भी इस पर्व में रुचि लेने लगे हैं। इस पर्व की खास विशेषता है कि इसमें मूर्ति पूजा की अपेक्षा प्रकृति की पूजा और आराधना को ही अहमियत दी गई है। छठ पूजा विशेषत: सूर्य, उषा, प्रकृति,जल, वायु और उनकी बहन छठी यानी षष्ठी को समर्पित है। सूर्योपासना का वर्णन ऋग्वेद, विष्णु पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि में विस्तार से मिलता है। चारों वेदों, उपनिषदों और अन्य वैदिक ग्रंथों में भी सूर्य की उपासना-वंदना का जिक्र मिलता है। ऐसी मान्यता है कि मध्य काल तक छठ सूर्योपासना के लोकपर्व के रूप में प्रतिष्ठित हो गया था जो अभी तक बदस्तूर चला आ रहा है। उत्तर वैदिक काल के अन्तिम चरण में सूर्य के मानवीय रूप की कल्पना विसित होने लगी। बाद में यह सूर्य की मूर्ति पूजा के रूप में परिवर्तित हो गई। पौराणिक काल आते-आते सूर्य पूजा का प्रचलन और अधिक हो गया। अनेक स्थानों पर भगवान सूर्य के मंदिर भी बने। पौराणिक काल में सूर्य को आरोग्य देवता माना जाने लगा था। सूर्य की किरणों में कई रोगों को नष्ट करने की क्षमता पायी गयी। ऋषि-मुनियों ने अपने अनुसन्धान के क्रम में कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इसका प्रभाव विशेष पाया था। छठ पर्व के उद्भव की संभवत: यही बड़ी वजह थी। ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम देव माता अदिति ने छठ पूजा की थी। प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था। इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलाई। कहते हैं कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम से जानी गईं और छठ का चलन भी शुरू हो गया।

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