 
                                           
                                पर्यावरण और हिमालय के लिए ताउम्र संघर्ष की राह पर चले बहुगुणा
                     
                                 
                                  
                                    देहरादून, 21 मई (हि.स.)। यह वर्ष 1986 की बात होगी। राजकीय इंटर काॅलेज कोटद्वार के सभी छात्रों की कक्षाओं में पढ़ाई रोककर उन्हें मैदान में इकट्ठा होने के लिए कहा गया। बताया गया कि कोई खास मेहमान काॅलेज  रहा है। सभी छात्रों की तरह मेरे मन में भी इस खास मेहमान को लेकर बेहद उत्सुकता थी। सफेद कुर्ता-पायजामा पहने, सिर पर साफा बांधे और कंधे पर झोला लटकाए सुंदरलाल बहुगुणा काॅलेज पहुंचे तो सभी बच्चों को इस खास मेहमान को देखकर आश्चर्य हुआ। आज-तक उन्होंने खास मेहमान को सूट-बूट और बड़ी गाड़ियों में ही आता देखा था। बहुगुणा आए और बच्चों से पर्यावरण पर बच्चा बनकर ही बात की। अपने झोले से टेप रिकार्डर निकाला और उस वक्त तेजी से उभर रहे नरेंद्र सिंह नेगी के गीत को बजा दिया। गीत के बोल थे-ना काटा तौं डाल्यूं यानी इन पेड़ पौधों को मत काटो। यह हिन्दुस्थान समाचार के इस संवाददाता के सुंदरलाल बहुगुणा को देखने का पहला वाकया रहा।
इसके बाद उनके जीते-जी कई मौके आए, जब उनसे मुलाकात करने, उन्हें सुनने-समझने की स्थिति बनी। राजकीय इंटर काॅलेज में पहली मुलाकात के वक्त उनके चेहरे पर उगी दाढ़ी उस तरह से सफेद नहीं थी, जो कि बाद में उनकी स्थापित पहचान का हिस्सा रही, लेकिन  जीवन के आखिरी पड़ाव तक हिमालय और पर्यावरण के लिए उनकी चिंता, उनके नजरिये में कोई फर्क नहीं आया। ढलती उम्र की वजह से उनके प्रयास जरूर प्रभावित होने लगे थे। नहीं, तो न सिर्फ उत्तराखंड, बल्कि पूरे देश ने देखा है कि टिहरी में बैठकर सुंदरलाल बहुगुणा एक बार आंदोलन की चेतावनी देते तो दिल्ली में हलचल मच जाती। देश-दुनिया का मीडिया टिहरी में जमा हो जाता। टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौरान उन्हें हिरासत में लिया गया तो विदेश में कई जगह संसद में सवाल उठ गए।
टिहरी बांध विरोधी आंदोलन के दौरान उन्होंने 47 दिन तक अनशन किया और केंद्र सरकार के पसीने छूट गए। पेट पर मिट्टी का लेपन करके, नींबू पानी को अपनी ताकत बनाकर सत्ता प्रतिष्ठान से लोहा लेने का उनका अपना तरीका था। गांधीवादी नेता सुंदरलाल बहुगुणा बापू की तरह ही कम बोलने में यकीन रखते थे। जिस वक्त अनशन पर होते तब तक बोलना ही बंद कर दिया करते थे। पहाड़ी हितों से सरोकार रखने वाले कांग्रेस के नेता अभिनव थापर अपना अनुभव साझा करते हैं। वह बताते हैं-एक बार जब बहुगुणा अनशनरत थे। वह अपने पिता के साथ उनसे मिलने चले गए। बहुगुणा की टिहरी में पुल से सटी कुटिया थी। वह वहीं पर आंदोलन करते थे। थापर ने बहुगुणा को समर्थन देते हुए उनसे कई तरह की बातें कीं, लेकिन वह कुछ न बोले। थापर को बुरा लगा तो उन्होंने साथ गए अपने पिता से इस बात का जिक्र किया, तो उनके पिता ने सारी गलतफहमी दूर कर दी। उन्होंने बताया कि अनशन के दौरान अपनी ऊर्जा बचाने के लिए वह मौन व्रत ले लिया करते थे। फिर उनके साथ किसी भी तरह का संवाद कागज में लिखकर ही हुआ करता था।
सत्तर के दशक में रैणी गांव में चिपको आंदोलन के बहुगुणा प्रणेता रहे। गौरा देवी और अन्य महिलाओं के साथ उन्होंने पेड़ पौधों को बचाने के लिए अनूठा आंदोलन चलाया। चूंकि बहुगुणा पत्रकार भी थे, इसलिए वह चिपको आंदोलन को देश-दुनिया में उस स्तर तक ले जाने में सफल रहे, जहां तक सामान्य स्थितियों में पहुंचना बहुत मुश्किल होता है। चार साल पहले उनके साथ उनके जन्मदिन की खुशियां मनाने का मुझे (इस संवाददाता) भी मौका मिला। देहरादून में शास्त्रीनगर स्थित बेटे के निवास पर अपनी पत्नी विमला बहुगुणा के साथ सुंदरलाल बहुगुणा प्रसन्नचित्त थे। हमेशा की तरह सादगी, सफेद कुर्ता पायजामा, सिर पर साफा उनके साथ थे। बातचीत में छोटे-छोटे बांधों की पैरवी करते हुए वह उस वक्त भी दिखे। बडे़ बांधों को पहाड़ के विनाश का प्रमुख कारण बताते हुए वह उसी तेवरों में दिख रहे थे, जैसे तब थे, जबकि टिहरी शहर बांध की वजह से डूब रहा था। वैश्विक महामारी कोरोना ने 94 वर्ष के हिमालय के सुंदर लाल को चिरनिद्रा में सुला दिया है, लेकिन हिमालय बचाने के लिए जो अलख उन्होंने जगाई है, वह हमेशा पर्यावरणप्रेमियों में ऊर्जा का संचार करती रहेगी। विनम्र श्रद्धाजंलि।