ओवेसी के आने की सुगबुगाहट से राजस्थान में मची हलचल

Saturday 28 Nov 2020 राष्ट्रीय

 
ओवेसी के आने की सुगबुगाहट से राजस्थान में मची हलचल जयपुर। आॅल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) यानी देश में मुसलमानों की आवाज बहुत मुखरता से रखने वाले असदद्दीन ओवेसी की पार्टी को बिहार में मिली सफलता के बाद अब इस पार्टी के राजस्थान में आने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। इसे लेकर सोशल मीडिया पर जबर्दस्त चर्चाएं है। मुस्लिम समुदाय के वाॅट्सएप ग्रुप्स में कैम्पेन चल रहे हैं और इन चर्चाओं ने राजस्थान के सियासत में हलचल पैदा कर दी है। कांग्रेस और भाजपा के नेता ओवेसी को लेकर आपस में उलझते दिख रहे है। कांग्रेसी नेताओं का आरेाप है कि ओवेसी भाजपा की बी टीम के तौर पर चुनाव लडते है, वहीं भाजपा ऐसे किसी भी तरह के आरोपों को खारिज कर रही है, लेकिन ओवेसी को राजस्थान लाने के लिए जिस तरह कैम्पेन चल रहे हैं, उनसे कांग्रेस नेताओं में चिंता जरूर है, क्योंकि ओवेसी का राजस्थान में आना कांग्रेस के बड़े वोट बैंक के टूटने का सबब बन सकता है। राजस्थान के राजनीतिक परिदृष्य की बात करें तो यहां अभी तक भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सीधा मुकाबला होता आया है। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पाटी, वामपंथी दल, आम आदमी पार्टी या यहां समय-समय पर बनीं स्थनीय पार्टियां आज तक कोई बडा प्रभाव नहीं छोड पाई हैं। समाजवादी पार्टी का प्रदेश में कोई खास वजूद नजर नहीं आता। बसपा पूर्वी और उत्तरी राजस्थान के कुछ खास क्षेत्रों तक ही सीमित है। वामपंथी दल भी उत्तरी राजस्थान की दो-तीन सीटों पर ही प्रभावशाली रहे हैं। आम आदमी पार्टी ने अभी तक एक भी जीत हासिल नहीं की है और स्थानीय दलों की बात करें तो चाहे पहले किरोडी लाल मीणा की पार्टी हो या अभी हनुमान बेनीवाल की पार्टी, ये भी इन नेताओं के प्रभाव क्षेत्रों में ही प्रभावी रह पाई हैं। सिर्फ भाजपा और कांग्रेस ही ऐसे दल हैं जो पूरे राजस्थान में चुनाव लडते हैं और हर पांच वर्ष मंे सत्ता परिवर्तन कर रहे हैं। राजस्थन में कांग्रेस के कोर वोट बैंक में अनुसूचित जाति और मुसलमानों की सबसे बडी हिस्सेदारी है। राजस्थान में जयपुर, अलवर, नागौर, टोंक, बाडमेर, जैसलमेर, जोधपुर, कोटा, अजमेर आदि जिलो की करीब 40 सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमान बडी तादाद में हैं और जीत हार को प्रभावित करते हैं। राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो मुसलमान पूरे देश में कांग्रेस का साथ देते आए हैं, लेकिन जहां-जहां मुसलमानों को कोई दूसरा विकल्प नजर आया, वहां उन्होंने कांग्रेस को छोडा और ऐसा छोडा कि वापस नहीं अपनाया। दिल्ली में वे आम आदमी पार्टी के साथ चले गए, बिहार में लालू प्रसाद यादव के साथ गए, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ चले गए तो बंगाल में वामपंथी दलों और अब ममता बनर्जी के साथ हैं। मुस्लिम वोट बैंक खिसकने के बाद अब इन सभी राज्यों में कांगे्रेस तीसरे-चैथे नम्बर की पार्टी बन कर रह गई है और वापसी तक नहीं कर पा रही है। मुस्लिम वोट बैक के साथ एक खास बात यह भी रही है कि आजादी के बाद से मुसलमानों ने कभी भी मुस्लिम नेतृत्व को अपना खैरख्वाह नहीं माना। इसने कांग्रेस, सपा, बसपा, वामपंथी दलों को तो अपनाया, लेकिन मुस्लिम लीग जैसी पार्टियां कभी भी मुसलमानों का समर्थन हासिल नहीं कर सकीं। लेकिन अब परिदृश्य बदलता दिख रहा है। मुसलमानों की नई पीढी में अब कहीं ना कहीं यह भावना पैदा हो रही है कि जितने दलों का उनकी कौम ने अब तक साथ दिया है, वे सभी मुसलमानों के हितों की रक्षा में कामयाब नहीं रही हैं। इस भावना के पीछे भाजपा जैसी धुर दक्षिणपंथी पार्टी का बडा राजनीतिक ताकत बनना भी है। जिसके चलते कांग्रेस साॅफ्ट हिन्दुत्व की राह पर चलती दिखाई देती है तो अन्य दल भी कहीं ना कहीं उन बातों का समर्थन करते दिखाई देते है, जो मुसलमानों को पसंद नहीं है जैसे राममंदिर का फैसला या धारा 370 को समाप्त किया जाना। इसी के चलते नई पीढी के मुसलमान अब यह मान कर चलने लगे हैं कि उनके हितों की रक्षा उनकी कौमा का नेतृतव कर सकता है। ओवेसी की जीत और हैदराबाद से बाहर उनका बढता कद इसी सोच का परिणाम है। राजस्थान के मुसलमानों मंे भी यह बात धीरे-धीरे फैल रही है। राजस्थान में मुसलमानों को अब तक कोई बड़ा और सशक्त विकल्प नहीं मिल पाया है। कांग्रेस-भाजपा के अलावा जो दल यहां दिखते है, वे जाट, मीण या दलित वोट बैक की राजनीति के सहारे ही छोटी-मोटी कामयाबी हासिल कर पाए हैं। ऐसे में मुसलमानों को एक बडे और सशक्त नेतृत्व की तलाश है। हाल में प्रदेश के तीन बडे शहरों जयपुर, जोधपुर और कोटा के निगम चुनाव में मुसलमानों ने कांग्रेस को खुल कर समर्थन दिया, लेकिन इसके बाद जब महापौर मांगा तो उन्हें उपमहापौर पर ही संतोष करना पड़ा। स्कूली पढाई में उर्दू का तीसरी भाषा का दर्जा खतरे में पडना जैसे कई मुद्दे है, जिन्हें लेकर मुसलमानों मे कांग्रेस के प्रति नाराजगी गाहे-बगाहे सामने आती रहती है। इन हालात में ओवेसी यहां आते हैं तो उन्हें मुसलमानों का अच्छा समर्थन मिल सकता है और यदि मुसलमान ओवेसी के साथ जाते हैं तो यह सीधा नुकसान काग्रेस का ही है, क्यांेकि यहां के मुलसमान भाजपा को वोट नहीं देते। यही कारण है कि यहां के कांग्रेस नेता ओवेसी के आने की चर्चाओं पर मुखर हो कर ओवेसी के खिलाफ बोलते हैं। कांग्रेस के दिग्गज कांग्रेस नेता और सरकारी मुख्य सचेतक महेश जोशी ने ओवैसी को भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एजेंट करार दिया था और कहा था कि वह भाजपा के निर्देश पर चुनाव लड़ते हैं। राज्य की जनता ऐसे नेताओं को नकार देगी। उधर भाजपा की राष्ट्रीय सचिव अलका सिंह गुर्जर ने इस तरह के दावों को पुरजोर तरीके से खारिज कर दिया और कहा कि ओवैसी और कांग्रेस दोनों तुष्टीकरण की राजनीति करते हैं। ओवेसी के आने की सुगबुगाहट मात्र से राजस्थान की राजनीति मंें और दोनों प्रमुख दलों में जिस तरह की बयानबाजी हो रही है। वो साफ दिखाती है कि कहीं ना कहीं बेचैनी तो है और निश्चित रूप से यह बेचैनी कांग्रेस में ज्यादा है, क्योंकि पूरे देश की तरह यहां भी ओवेसी किसी को नुकसान पहुंचाएंगे तो वो कांग्रेस ही है।

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